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शिक्षा.... संस्कार एवं संस्कृति की अत्यन्त प्राचीन काल से ही भारत में शिक्षा का गौरवशाली इतिहास रहा है, जब भारत में ग्राम-ग्राम तक पाठशालाएं तथा राष्ट्रीय स्तर पर तक्षशिला तथा नालंदा जैसे विश्वविद्यालय हुआ करते थे। जबकि उस समय यूरोप जैसे देषों में एक भी विश्वविद्यालय नहीं था। वर्तमान में भारत की आजादी के 68 साल बाद भी कस्बाई एवं ग्रामीण क्षेत्रों में स्कूली शिक्षा की स्थिति बेहद दयनीय है। आजादी के पहले यह स्थिति और भी ज्यादा खराब थी।
उसी दौर में सन् 1944 में जैन संत 108 आचार्य ‘‘श्री समन्त भद्र जी महाराज’’ एवं ‘‘ श्री गणेश प्रसाद जी वर्णी’’ की पावन प्रेरणा एवं खुरई जैन समाज के प्रयासों से प्राचीन भारतीय गौरव-गरिमा के अनुरूप श्रेष्ठ नैतिक-चारित्रिक विकास के साथ-साथ उत्तोत्तम लौकिक शिक्षण देने का उद्देश्य लेकर ‘‘गुरुकुल खुरई’’ की स्थापना की गई।
शाश्वत् संस्कृति सुख देती है जिसका बाह्य स्वरूप तो परिवर्तनशील रहा है परन्तु आंतरिक स्वरूप शाश्वत् रहा है। सुख का स्त्रोत होता है ‘शिक्षा’, और ‘शिक्षा’ का मूलाधार होती है ‘शिक्षा प्रणाली’। जो प्रणाली विवेक समन्वित आत्मीय भावनाओं से संचालित होती है उसका स्वरूप ऐतिहासिक होता है, जिसका जीवन्त प्रमाण है- खुरई गुरुकुल।
विवेक समन्वित भीगेपन की आत्मीय भावनाओं से संचालित गुरुकुल सन् 1944 में श्री पार्श्वनाथ ब्रह्मचर्य आश्रम दिगम्बर जैन गुरुकुल के सार्थक नाम से नामांकित यह संस्था 5 विद्यार्थियों के साथ प्रारंभ हुई थी। फिर श्रीमन्त सेठ ऋषभ कुमार जी द्वारा प्रदत्त 10 एकड़ भूमि पर चहुँमुखी विकास के सोपान तय करती हुई, एस.पी. जैन गुरुकुल के नाम से देश-विदेश में विख्यात हैं |
इस संस्था को बहुत ही आत्मीय भावनाओं के साथ आचार्य समन्तभद्र जी एवं युगपुरूष परम पूज्य श्री गणेश प्रसाद जी वर्णी, पं. देवकीनंदन जी शास्त्री, पं.जगमोहन लाल जी शास्त्री, ब्र.माणिचंद्र जी चैरे एवं सम्पूर्ण खुरई समाज का तन-मन-धन से समर्पण रहा है।